‘अस्मितामूलक विमर्श के विविध आयाम’ विषय पर अन्तरराष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन।

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दरभंगा: बुधवार को विश्वविद्यालय हिंदी विभाग, ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय, दरभंगा द्वारा ‘अस्मितामूलक विमर्श के विविध आयाम’ विषय पर अन्तरराष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन हुआ।

प्रो० साह ने अस्मितामूलक विमर्श की जरूरत क्यों पड़ी इस पर विचार करते हुए कहा कि वह वर्ग जो उपेक्षित है, दलित है, पीड़ित है उसे मुख्यधारा में लाने का आंदोलन ही अस्मितामूलक विमर्श है।

कुलसचिव प्रो० मुश्ताक अहमद ने कहा कि आज जिस विषय पर संगोष्ठी आयोजित हुई है वह केवल हिंदी का विषय नहीं है बल्कि यह राजनीति से लेकर दर्शन तक का विषय रहा है। महात्मा गांधी ने कहा था कि जब नीति निर्माता समाज के लिए कोई नीति बनाएं तो पहले हाशिये पर खड़े लोगों को आगे कर दिया जाए। उन्होंने कहा कि यह सुखद आश्चर्य है कि भारतीय साहित्य में यह विषय अंतर्धारा के रूप में आदिकाल से प्रवाहमान है। यह बात दीगर है कि किसी ने उसकी पहचान करने की कोशिश नहीं कि।

प्रति-कुलपति प्रो० डॉली सिन्हा ने कहा कि हिंदी विभाग ने यह बहुत प्रासंगिक विषय उठाया है। विज्ञान से जोड़ते हुए उन्होंने इस विषय को बहुत वजनी और भारी बताया। हाशिये के समाज का साहित्यिक सरोकार कितना महत्त्वपूर्ण है इस पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा कि यह विमर्श आज की जरूरत है। उन्होंने भी इस बात पर जोड़ दिया कि विभिन्न भाषाओं में आज इस विषय पर निरन्तर लिखा जा रहा है और उन्हें भी इस कार्यक्रम में आमंत्रित किया जाना चाहिए था। उन्होंने कहा कि भविष्य में ऐसे आयोजनों को दो दिवसीय कराया जाना चाहिए ताकि दूसरे दिन पैनल डिस्कशन हो सके।

विश्वविद्यालय के माननीय कुलपति महोदय प्रो० सुरेंद्र प्रताप सिंह ने कहा कि दो महत्त्वपूर्ण शब्द, एक अस्तित्व और दूसरा अस्मिता ये दोनों ऐसे शब्द हैं जिनपर मीमांसा, चिंतन और विमर्श की जरूरत है। उन्होंने कहा कि इन शब्दों पर चिंतन कर लिया जाए तो कुछ भी अछूता नहीं रह जाता। अस्मिता के कई प्रश्नों को कई स्तर और कई आयामों पर उन्होंने व्याख्यायित किया। अस्मिता किस तरह से बचाई जाए उस पर ही उनका व्याख्यान मूल रूप से केंद्रित रहा। उन्होंने कहा कि आज साहित्य के विस्तार की आवश्यकता है, उसे समाज से जोड़ने का प्रयास किया जाना चाहिए उसे सिर्फ कथानक और कथावस्तु तक सीमित न रखें। उन्होंने कहा कि अगर समाज को केंद्र में रखकर अगर यह विमर्श हो तो इसके दूरगामी प्रभाव बहुत अच्छे होंगे।

प्रथम सत्र में प्रो० चन्द्रभानु प्रसाद सिंह ने विषय प्रवर्तन किया। उन्होंने आज की संगोष्ठी के विषय में बताया कि यह विषय बहुत ही व्यापक है इसीलिए कुल 16 बिंदु को इस विमर्श के केंद्र में रखा गया है। उन्होंने आगे कहा कि यह दौर आंदोलनों का दौर नहीं बल्कि विमर्शों का दौर है जबकि बीसवीं शताब्दी आंदोलनों की शताब्दी थी। उन्होंने कहा कि आज सम्पूर्ण विश्व में पुनः नवजागरण पर नए ढंग से बहस शुरू हो चुकी है। नवजागरण के दौरान जो प्रश्न अछूते रह गए थे आज फिर उनपर नयी दिशा में बहस की शुरुआत हुई है। उन्होंने कहा कि भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में भारतीय अस्मिता की तलाश हो रही थी जबकि स्त्रियों, दलितों, पिछड़ों आदि के प्रश्न अछूते रह गए थे। आज वही अछूते प्रश्न केंद्र में आ गए हैं। दलित शब्द की व्यापकता पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा कि स्त्रियाँ भी दलित हैं उन्हें दलित से अलग करने की कोशिश नहीं की जानी चाहिए। दलितों से आदिवासियों को अलग करते हुए उन्होंने बताया कि दलितों की समस्या सामाजिक है और आदिवासियों की भाषिक और सांस्कृतिक हैं। इतना ही नहीं आदिवासियों को दलितों से भौगौलिक अवस्थाएं भी अलग करती हैं। आदिवासियों की सामुहिकता में गहरी आस्था होती है। इसीलिए जहाँ दलितों में आत्मकथा प्रचलित हैं वहीं आदिवासियों में आत्मकथा का कोई प्रचलन नहीं हैं। जहाँ दलितों में ‘आत्म’ महत्त्वपूर्ण है वहीं आदिवासियों में समाज मुख्य है। दूसरी ओर उन्होंने कहा कि दलितों में जहाँ आत्मकथा मुख्य है वहीं आदिवासियों में कविता मुख्य रही है। दलितों में विद्रोह की नई प्रवृत्ति दिखाई पड़ती हैं जबकि आदिवासियों में यह प्रवित्ति आदिकाल से दिखलाई पड़ती है। आदिवासियों की उलगुलान परम्परा की चर्चा करते हुए उन्होंने बताया कि आजादी की लड़ाई में भी इसका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। त्रिभुवन विश्वविद्यालय, काठमांडू, नेपाल से जुड़ीं डॉ० श्वेता दीप्ति ने कहा कि आज वंचित वर्ग के साहित्यिक आंदोलनों ने सम्पूर्ण समाज को अपनी ओर आकर्षित किया है। उन्होंने नारी-विमर्श को आज का सबसे महत्त्वपूर्ण साहित्यिक विमर्श बताया। उन्होंने कहा कि स्त्री-विमर्श की शुरुआत हिंदी में छायावादी युग से ही शुरू होती है। दलित साहित्य पर अपनी बात रखते हुए उन्होंने राजेन्द्र यादव की पत्रिका ‘हंस’ के दलित विमर्श से सम्बंधित आलेखों का उदाहरण देते हुए कहा कि हंस से ही दलित विमर्श प्रकाश में आया। उन्होंने प्रेमचंद, निराला, यशपाल, राहुल सांकृत्यायन आदि सवर्णों के दलित चिंतन पर भी प्रकाश डाला जिन्हें आज के दलित साहित्यकार अपनी परिधि में नहीं शामिल करना चाहते।

विशिष्ट वक्ता डॉ० राजेश्वर प्रसाद सिंह ने कहा कि आज हर वस्तु के साथ साथ अस्मिता शब्द को जोड़ दिया जाता है। उन्होंने कहा कि सांख्य दर्शन में अस्मिता का अर्थ अभिमान और अहंकार से जोड़ा जाता है। उन्होंने ‘अस्मिता’ को योग दर्शन से भी जोड़ा और भारतीय परंपरा के अनुसार ‘अस्मिता’ की व्याख्या की। उन्होंने की जब ‘अस्मिता’ विविध समाजिक, राजनीतिक क्षेत्रों से जुड़ती है तो उसका फलक व्यापक हो जाता है।

प्रो० अनुसुइया अग्रवाल ने अपने उद्बोधन में मुख्य रूप से पर्यावरण को केंद्र में रखा। उन्होंने कहा कि मानव से सर्वप्रथम अपना विकास नदियों के नजदीक किया। यह सर्वविदित है कि जल और वायु मानव जीवन के लिए सबसे जरूरी है। उन्होंने कहा कि प्रकृति ने जो कुछ भी हमें उपहार में दिया है हमें उसका दोहन कम करना चाहिए अन्यथा प्राकृतिक विनाश भी निश्चित है।
ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय, दरभंगा के पूर्व मानविकी संकायाध्यक्ष और हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो० प्रभाकर पाठक ने अध्यक्षीय आसन से कहा कि हिंदी में ‘अस्मिता’ शब्द का सबसे पहला प्रयोग 1950ई० के आसपास अज्ञेय ने किया। उन्होंने कहा कि अस्मिता जब तक हृदय में रहती है वह अच्छी है लेकिन ज्यों ही वह बुद्धि पर चढ़ जाती है तो वह भयंकर और विकराल हो जाती है। विनोबा भावे को उद्धरित करते हुए उन्होंने स्त्रियों की सहनशीलता और पराक्रम पर भी विचार व्यक्त किये। महात्मा गांधी को याद करते हुए उन्होंने कहा कि जब सम्पूर्ण देश स्वतंत्रता का जश्न मना रहा था तब महात्मा गाँधी अपनी अस्मिता खोजने नोआखाली में थे।

दूसरे सत्र में भारती भाषा संवर्धन संस्थान, दुबई से ऑनलाइन माध्यम से जुड़े विशिष्ट वक्ता श्रीयुत भूपेंद्र कुमार ने अस्मितामूलक विमर्श को वैदिक काल से जोड़ने का प्रयास किया। उन्होंने कहा कि ‘मनुस्मृति’ में जन्म के आधार पर नहीं अपितु कर्म के आधार पर जातियों का वर्गीकरण किया गया है। भारतीय संस्कृति की व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा कि यह भारत भूमि कई मतों का उद्गम स्थल है। मुख्यरूप से अस्मितामूलक विमर्श को संस्कृति से जोड़ने का उन्होंने स्तुत्य प्रयास किया। उन्होंने कहा कि आज जो अस्मितामूलक विमर्श चल रहे हैं उसमें एक विशेष प्रकार की अवधारणा को जबरन बल दिया जा रहा है जबकि सच्चाई यह है कि यह हमें अपनी संस्कृति से भटकाने का प्रयास है। हमें पुनः अपनी संस्कृतियों की ओर वापस लौटना चाहिए कहते हुए उन्होंने अपनी वाणी को विराम दिया।

देशबन्धु कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय के वरीय प्राध्यापक प्रो० संजीव ने कहा कि ‘अस्मिता’ एक भारी-भरकम शब्द है, इसका सरलीकरण ‘पहचान’ है। उन्होंने कहा कि ‘अस्मितामूलक विमर्श’ कोई गर्व करने का विषय है। उन्होंने कहा कि पहचान की गोलबंदी का आधार बनती हैं दलित अस्मिता, स्त्री अस्मिता, पिछड़ों की अस्मिता आदि।

सम्पूर्ण कार्यक्रम में मंच का संचालन विश्वविद्यालय हिंदी विभाग के सह प्राचार्य डॉ० आनन्द प्रकाश गुप्ता ने किया। विभिन्न स्तरों म् धन्यवाद ज्ञापन की औपचारिकता डॉ० सुरेंद्र प्रसाद सुमन एवं डॉ० अखिलेश कुमार ने निभायी। कार्यक्रम में डॉ० प्रिय कुमारी ने नाट्य प्रस्तुति के माध्यम से समाज की सच्चाई बतायी। कार्यक्रम में विश्वविद्यालय हिंदी विभाग के कनीय शोधप्रज्ञ कृष्णा अनुराग, अभिशेक कुमार सिन्हा, धर्मेन्द्र दास सहित बड़ी संख्या में शिक्षक, शोधार्थी और छात्र उपस्थित रहे।

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