जन-जन में जननायक, कण-कण में कर्पूरी।

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दरभंगा। समाजवाद के पुरोधा व पूर्व मुख्यमंत्री स्व.कर्पूरी ठाकुर सूबे की राजनीति के एक ऐसे व्यक्तित्व थे, जो कथनी व करनी में भी समाजवादी थे। विधायक से मुख्यमंत्री तक के सफर में उनके व्यक्तित्व व व्यवहार में कोई उतार-चढ़ाव नहीं रहा। राजनीति में ईमनादारी व सादगी के पर्याय रहे जननायक कर्पूरी ठाकुर का दरभंगा से गहरा नाता रहा। अविभाजित दरभंगा जिले ( अब समस्तीपुर) के पितौझिया गांव में 24 जनवरी 1924 को जन्मे कर्पूरी ठाकुर का समग्र जीवन व राष्ट्र व समाज के लिए समर्पित रहा। यही कारण है कि आज भी जन-जन के जेहन में जननायक जीवंत हैं तो यहां के कण-कण में कर्पूरी ठाकुर की स्मृतियां समाहित हैं। संघर्ष व समाजसेवा उनकी साधना रही। मैट्रिक के बाद दरभंगा के सीएम कॉलेज में नामांकन हुआ। बताया जाता है कि प्रतिदिन रेल से दरभंगा पहुंचकर कॉलेज में पढ़ाई कर फिर ट्रेन से ही वापस लौटते थे। इस दौरान कई किलोमीटर पैदल सफर अलग से। लेकिन, देश की गुलामी उन्हें नहीं पच रही थी। 1942 में महात्मा गांधी के आह्वान पर स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान पढ़ाई छोड़ दी। यातनाओं को सहते हुए अपने को समर्पित किया। लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि ताजपुर विधानसभा से लगातार प्रतिनिधित्व करने का मौका मिला। 1967 में बनी संविद सरकार में बतौर कैबिनेट मंत्री के रूप में उनकी कार्यशैली से ही संकेत मिल गया कि बिहार की राजनीति को सच्चा जननायक मिल गया है। 1970 में सूबे के मुख्यमंत्री बने। यह दीगर बात है कि कार्यकाल छोटा रहा है, लेकिन अमिट छाप छोड़ी। लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में कांग्रेस के खिलाफ चले आंदोलन के केंद्र में कर्पूरी जी रहे। 1977 में सांसद चुने गए, लेकिन विधानसभा चुनाव के बाद उन्हें बिहार का मुख्यमंत्री चुना गया। उन्होंने राज्य के विकास के लिए लकीर खींची। उस समय मैट्रिक की परीक्षा में अंग्रेजी की अनिवार्यता के कारण भारी तादाद में छात्र अनुत्तीर्ण होते थे। उन्होंने इस जमीनी हकीकत को करीब से देखा। अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त हुई। मैट्रिक की बाधा छात्र पार करने लगे। 1980 के बाद से विपक्ष की राजनीति करते हुए स्व.ठाकुर ने स्वच्छ व सकारात्मक राजनीति को दिशा दिखाई। 17 फरवरी 1988 का दिन बिहार की राजनीति के लिए काला दिन था। इस दिन जननायक ने अंतिम सांस ली। दरभंगा में मेडिकल चौराहा पर उनकी भव्य प्रतिमा स्थापित है। जयंती और पुण्यतिथि पर श्रद्धांजलि देने वालों की भीड़ से स्पष्ट होता है कि वे वाकई जन-जन के नायक थे। उन्हें राजनीति व भूगोल की किसी सीमा में बांधा नहीं जा सकता है।

साभार : ब्रह्मेन्द्र झा (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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