न्यूज़ ऑफ मिथिला डेस्क : एक गुनगुन थानवी जो खुद को “35 वर्ष” की महिला बताती हैं ने हठात एक पोस्ट लिख दिया की मैथिली व हिन्दी के प्रसिद्द साहित्यकार वैद्यनाथ मिश्र ‘यात्री’ (हिंदी में नागार्जुन नाम से प्रसिद्ध) ने उनका यौन शोषण किया जब वह महज सात वर्ष की थी.
गुनगुन के आरोपपत्रों को पढ़कर लग रहा है मानो की उनके अंदर यात्रीजी के प्रति एक भयानक आग धधक रही है और वह इस आग में यात्रीजी के सम्पूर्ण साहित्यिक व सार्वजनिक जीवन को जलाकर राख कर देना चाहती हैं.
मुद्दई ‘कागज़ नहीं दिखाएंगें’ संप्रदाय की बामपंथी हैं जबकि जिन्हें मुदालह रूप में उनके चिरनिद्रा से घसीट कर कठघरे में खड़ा किया जा रहा है वह बामपंथी विचारधारा के पुरोधा रहे हैं.
इन्होने मी टू का दुसरा संस्करण शुरू किया है. अब यात्रीजी तो जीवित हैं नहीं की प्रतिवाद करें। आरोपकर्ता महिला हैं इसलिए वह झूठ बोल ही नहीं सकती हैं. आप उनसे जबाबतलब करने की हिम्मत नहीं कर सकते हैं क्यों की एक झुण्ड आपको तत्काल मनुवादी और पुरुषवादी मानसिकता वाला घोषित कर आप पर टूट पड़ेगा जिन्हें हर मर्द एक पोटेंशियल रेपिस्ट नजर आता है.
लगभग 87 वर्ष की अवस्था में यात्रीजी की मृत्यु हुई थी। उनके मृत्यु के 21 साल बाद पीड़िता को एहसास हुआ की उन्हें यह सत्य उद्घाटित कर देना चाहिए। चूँकि उन्होंने पहले ही घोषणा कर दिया हुआ है की वह कागज नहीं दिखायेंगी आप उनसे सवाल नहीं कर सकते। इस उम्र में वह शारीरिक रूप से लगभग इनवैलिड हो चुके थे कहीं आ जा नहीं सकते थे. उनका आरोप गोलमटोल है आप पढ़कर भावुक हो जाइये और यात्रीजी को यौन पिपाशु घोषित कर दीजिये। आप आरोप की कैफियत नहीं माँग सकते क्यों की आरोप एक महिला ने लगाया है.
इस पुरोधा की चर्चा और कीर्तन होती रहती है. मैथिली के बहुत सारे नए नवेले व प्रौढ़ कवि साहित्यकारों ने खुद को यात्रीजी का उत्तराधिकारी घोषित कर रखा है, नवतुरिया यात्रीजी द्वारा दिए गए नारे ‘नवतुरिया आगू आबय’ का तुमुलनाद करते हैं. कई उनका नाम लेकर मठाधीश बन गए और कइयों ने तो उनके साथ अपनी घनिष्ठत्ता का दावा करते हुए झूठ का पुलिंदा लिख दिया।यात्रीजी को बाबा बाबा कहते तो उनकी जुबान तक घिस गयी. वह भी चुप हैं जिन्हें यात्री सम्मान पुरस्कार मिला हुआ है. क्यों की जुबान घिस गयी है इसलिए इनमे से बहुतेरे चुप बैठे हुए हैं. कुछ लोग मिमिया कर विरोध कर रहे हैं ताकि प्रतीकात्मक विरोध भी दर्ज हो जाये और इस आरोप पर हामी भरने वाले लोगों की नजर में अच्छा बच्चा भी बने रहें। इनकी क्रोनोलॉजी देखिये ये हिंदी और मैथिली दोनों ही साहित्य में कूदते फांदते रहते हैं.
मुझे तो दक्षिणपंथी घोषित कर रखा है फिर मुझे क्यों उन्हें डिफेंड करना चाहिए। मुझे तो खुश होना चाहिए की उनकी अप्रतिष्ठा हो रही है। लेकिन आप तो बामपंथी हैं आपके बाबा विद्रोही कवि थे, जनकवि थे आपको क्यों लकवा मार रखा है.
कुछ एक रचना के अतिरिक्त मुझे उनका साहित्य पसंद नहीं आया. पारो व रतिनाथ की चाची मुझे उतना ही वीभत्स लगा जैसा की आज का वामपंथ। मेरा उनके विचारधारा के साथ विरोध रहा है. लेकिन वह हमारे बीच के थे, वह हमारे पड़ोसी ही नहीं हमारे सम्बन्धी भी थे. और मैं प्रतिवाद सिर्फ पड़ोसी और निकट सम्बन्ध की वजह से नहीं कर रहा हूँ. क्यों की अगर ये दोनों फैक्टर होते तो मैं उनका वैचारिक विरोधी नहीं होता और ना ही उनके उक्त साहित्य पर टिप्पणी करता जिसे बामपंथी माइल स्टोन मानते हैं. वह अपने समय के सबसे बड़े ट्रोलर थे उन्होंने भी खूब साहित्यिक दुरभसंधि की. कभी कभी वह लिखते लिखते कुछ ऐसा भी लिख गए, सत्य या असत्य, लेकिन वह बहुत सारे जीवित व मृत को असहज करने वाला था.
लेकिन वह चरित्रहीन नहीं थे और ना ही उनके हँसी मजाक, व्यबहार और सोच में कोई पीडोफाइल या यौन विकृत व्यक्ति छुपा हुआ था। क्यों की अगर उनके अंदर कोई ऐसी विकृत कुंठा होती तो उसका शिकार कोई एक नहीं अनेक होता।
उनका विपन्न होना कोई पाप नहीं कोई अपराध नहीं । वह यायावर विपन्न थे, जिसने सम्मान से घर बुला लिया वही रम गए और हम लोगों ने उन्हें इसी अलबेले रूप में हमेशा स्वीकार किया। पारिवारिक जीवन भी हमेशा उतार चढ़ाव से भरा रहा. वह कभी आशावादी थे तो कभी पलायनवादी भी. कभी कभी अपनी जिम्मेदारियों को सही ढंग से निभा नहीं पाने का रोष और अफ़सोस भी व्यक्त करते थे.
वह बामपंथी थे लेकिन चरित्रहीन नहीं थे यह बात मिथिला के लोग पूरी जिम्मेदारी से कहेंगें। उन्होंने अपना धर्म और संस्कार बचाये रखा था. बामपंथ से मोहभंग भी हुआ और एक बार वह कौलिक मिथिला संस्कार की तरफ वापस भी चल पड़े जो उनकी एक कविता से परिलक्षित होती है:-हमरो होइछ सेहंता हमहुँ संध्या तर्पण करितहुँ भोर में (मेरे दिल में भी एक ख्वाहिश थी की मैं भी सबेरे संध्या तर्पण करता)।
अपने उन समकालीन बामपंथी जो उन्हें बामपंथ की राह पर ले गए, यात्रीजी चरित्र के मामले में उनसे साफ़ उलट थे जिन्होंने अनगिनत विवाह किया सम्बन्ध बनाये। यात्रीजी आजीवन एक पत्नीव्रती रहे. वह स्वेक्षाचारी व विधर्मी बामपंथी की जमात में कभी नहीं रहे क्यों की उनके लम्बे सामाजिक जीवन में कभी भी ऐसा न हुआ न सुना की उन्होंने कोई अमर्यादित आचरण किया हो.
प्रतिष्ठित को अप्रतिष्ठित करना मिथ्यारोप लगाना यह बामपंथियों का पुराना खेल है. वह प्रचार पाने के लिए खुद का या फिर अपनों का चरित्रहनन करते हैं. मैथिली में एक कहावत है सुकर्म नाम या कुकर्म से नाम. बामपंथी अक्सर दुसरा रास्ता अपनाते हैं. क्या यात्रीजी के खिलाफ उड़ाए गए इस अफवाह के पीछे वही कुकर्म वाली थ्योरी तो नहीं है? यात्रीजी को अब किस नाम की जरूरत है? कहीं इसी गिरोह के द्वारा किसी ख़ास उदेश्य से उनके छवि को धुल में मिलाने की साजिश तो नहीं हो रही है? कहीं यात्रीजी मैथिल होने का दंड तो नहीं झेल रहे हैं? 1954 में उन्हें बामपंथी पार्टी से इस्तीफा देना पड़ा था. लगभग निकाल ही दिए गए. बामपंथी उन्हें मिथिला और मैथिली की सेवा करने से रोकते थे । उस समय रामविलाश शर्मा जैसे लोगों ने इन्हें मैथिली के हित बोलने की वजह से प्रताड़ित किया था। फिर बाद में यात्रीजी मैथिली कम हिंदी में अधिक लिखने लगे।
संदिग्ध चरित्र का होना मानो की बामपंथी होने के पहली शर्त है जिसके बिना किसी बामपंथी साहित्यकार का सम्पूर्ण साहित्य व्यर्थ है. जैसा की ऊपर लिखा की बामपंथी खेमा अपने ही स्थापित साहित्यकारों का चरित्र हनन करता है.एक वाकया मुझे देखा हुआ है. बाबूजी अर्थात डॉक्टर रामदेव झा बतौर साहित्य अकादमी में मैथिली के प्रतिनिधि थे. मैथिली व हिन्दी के यशश्वी साहित्यकार राजकमल पर मोनोग्राफ लिखा जाना प्रस्तावित हुआ. मोनोग्राफ लिखने का दायित्व सहरसा सुपौल के साहित्यकार श्री सुभाषचंद्र यादवजी को दिया गया. तय समय पर उन्हें मोनोग्राफ की पाण्डुलिपि जमा की. राजकमल के सम्पूर्ण साहित्यिक जीवन को चंद पन्नों में समेट दिया गया. गल्पकार ने बड़े सुरुचिपूर्ण ढंग से राजकमल के निजी जीवन पर अपना ज्ञान उड़ेल दिया। वह इतना ही विभत्स और अश्लील था की जिसे बत्तर अश्लील साहित्य से गया गुजरा था. इसी बीच सहरसा सुपौल के बामपंथी साहित्यकार भाई लोगों ने साहित्य अकादमी को पुलिंदा में पत्र भेजना शुरू किया की डॉक्टर रामदेव झा राजकमल के विरोधी हैं और वह किसी कीमत पर राजकमल पर मोनोग्राफ प्रकाशित नहीं होने देंगें।
अकादमी में मैथिली के तत्कालीन प्रभारी रमेश भसीन ने इन आरोपों के एवज में एक कठोर पत्र बाबूजी को भेजा था. बाबूजी ने जबाब में मोनोग्राफ के उन पन्नों को अंकित करते हुए जबाब भेज दिया की मोनोग्राफ उनके साहित्य पर केंद्रित होना चाहिए या उनके निजी जीवन पर जिसके बारे में ढेर सारे बेहद ही अमर्यादित व अश्लील बातों का समावेश किया गया है जो इस साहित्यकार को यौन कुंठित यौन पिपासु व चरित्रहीन के रूप में चित्रित करता है. किन साक्ष्यों के आधार पर ऐसा लिखा गया? कौन इसकी पुष्टि करेगा? राजकमल तो जीवित नहीं हैं? बाबूजी ने अकादमी को सूचित किया था राजकमल पर आधारित मोनोग्राफ के इस कंटेंट को सहमति देने का साहस उनमे नहीं है.तथ्यों से अवगत होने के बाद रमेश भसीन का पत्र आया था “बंधु क्षमा करेंगें अकादमी इन तथ्यों से अवगत नहीं था.”
उस दिन से सहरसा और सुपौल के बामपंथी मैथिली साहित्यकार बाबूजी के विरुद्ध हुए वह आजतक कायम है.
आज भी बामपंथी राजकमल के साहित्य पर कम उनके तथाकथित यौन सम्बन्ध पर अधिक दिलचस्पी दिखाते हैं. जो शिष्ट साहित्य की वकालत करें बामपंथी उन्हें झट से ब्राह्मणवादी, पोंगापंथी दक्षिणपंथी घोषित कर देते हैं क्यों की उनकी मान्यता व परम्परा के अनुसार साहित्य बिन सेक्स और उच्चश्रृंखलता के संभव नहीं है. यात्रीजी में ढेर सारी बुराइयां थीं लेकिन वह आवारा और बदचलन नहीं थे. उनके कपडे बदबूदार थे उनका चरित्र नहीं। वह ठक्कन मिश्र के नाम से भी जाने जाते थे लेकिन बामपंथियों की तरह ठग नहीं थे. मृत्यु के 21 साल बाद उनको यह दिन देखना पड़ रहा है शायद यह भी एक प्रारब्ध उनके भाग्य में लिखा था. उनके नाम का खाने वाले डफली बजाने वाले चुपचाप जुगाली कर रहे हैं.
साभार : विजयदेव झा (लेखक सीनियर जॉर्नलिस्ट हैं और यह उनके निजी विचार हैं)
